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कविता संग्रह >> 180 डिग्री का मोड़

180 डिग्री का मोड़

पुष्पलता शर्मा

प्रकाशक : सजग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8314
आईएसबीएन :0

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पुष्पलता का पहला काव्य-संग्रह...

180 Digree Ka Mod - A Hindi Book - by Pushplata Sharma

पुष्पलता का पहला काव्य-संग्रह ‘180 डिग्री का मोड़’ मैंने पढ़ा और मुझे लगा कि कविताएँ लिखने में कवयित्री ने वास्तव में हृदय का प्रयोग तो किया ही है साथ ही जिन्दगी के व्यापक कैनवास पर बिखरे जीवन-चित्रों पर भी फ़ोकस किया है। हृदय से लिखी गई कविताएँ हृदय तक पहुँचती हैं और ऐसी कविताएँ बौद्धिक उलझाव से बच जाती हैं। जो कुछ लिखा है पढ़ने वाले को लगता है कि कहीं उस पर ही तो नहीं लिखा है! लेखिका की कलम से निकले शब्द जब पाठक के मर्म से एकाकार हो जाते हैं तो यह अवश्यम्भावी हो जाता है कि पाठक अपने आपको कविता में समाहित पाता है तो फिर उसे कविताएँ अपनी-सी लगती हैं और यही एक रचनाकार की सफलता है।

हालाँकि यह पुष्पलता का पहला काव्य-संग्रह है लेकिन ऐसा लगता नहीं कि यह उनका पहला प्रयास है क्योंकि इसमें कविताओं का जो स्तर है उसमें पुष्पलता की लेखनी में कहीं कोई भटकाव नहीं है। संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए यह पता ही नहीं चला कि यह लेखिका पहली बार किताब की शक्ल में पाठकों से रूबरू होगी।

कविताएँ पुष्प के साथ काँटे का स्वभाव भी रखती हैं इसीलिए इनकी कविताएँ सजह तो करती हैं लेकिन चुभन का काम भी करती हैं और पुष्प की तरह खुशबू भी बरकरार रखती हैं। इस संकलन की ख़ास बात यही है कि इसकी महक निश्चित ही दूर तक जाएगी। कविता-यात्रा की शुरुआत करने वालों के लिए यह संग्रह अवश्य ही प्रेरक का काम करेगा।

पाठकों को यह काव्य-संग्रह पसंद आयेगा यह मेरा विश्वास है और मैं इन्तज़ार करूँगा पुष्पलता के अगले काव्य-संग्रह का।

—सुरेन्द्र शर्मा

वरिष्ठ कवि एवं
अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व

‘‘180 डिग्री का मोड़’’ युवा रचनाकार पुष्पलता शर्मा का पहला कविता संग्रह है। कविताएँ पाठकों से मन की कही-अनकही को बतियाती प्रतीत होती हैं। जीवन के अनेकानेक रंगों के चित्रों को उभारतीं और कहीं-कहीं अपनी ही छाया से संवाद करतीं ये कविताएँ आध्यात्मिकता, दर्शन और प्रारब्ध की गहरी संवेदना को स्पर्श करती चलती हैं। प्रकृति का व्यापक उपयोग तथा उसके भिन्न-भिन्न रूपों को अवलम्ब के रूप में कविता-दर-कविता सार्थक करने वाली पुष्पलता कहीं-कहीं मानव-मन और मानव व्यवहार का सशक्त तथा तार्किक विश्लेषण भी करती चलती हैं। संग्रह की कविताओं में आन्तरिक लयात्मकता, भाव सम्प्रेषणता, कल्पनाशीलता के साथ-साथ युगबोध भी स्पष्ट दृष्टिगत होता है। छोटी कविताएँ हों या लम्बी कविता, भाषा की सहजता, सरलता और बोधगम्यता युग की माँग के अनुरूप ही है। हिन्दी उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग कवयित्री ने बखूबी किया है।

पीड़ा और संत्रास के इस भीषण युग में जहाँ मनुष्य अर्थतंत्र का गुलाम होकर ही रह गया प्रतीत होता है, ऐसे में पुष्पलता की रचनात्मकता उनकी संवेदनशीलता को भली प्रकार रूपायित करने में समर्थ हुई है। जीवन के विभिन्न आयामों से उपजी ये कविताएँ चुपके से अनेक सार्थक प्रश्नों की मुद्रा में मानवमात्र के कल्याण हेतु खड़ी दिखाई देती हैं। आसमान, बादल, धरती, सागर, सूरज सभी के सभी पूरे संग्रह में अलग-अलग रूपों में पाठक को छूकर अनूठे अहसासों से सराबोर करते चलते हैं।

निश्चित ही पुष्पलता शर्मा का यह संग्रह स्वागतयोग्य है क्योंकि मूल्यहीनता, संस्कारहीनता और चहुँओर गिरावट के इस दौर में ये कविताएँ साहित्य और समाज के लिए ‘एंटीडोट’ का काम करेंगी।

संग्रह की सफलता और व्यापक स्वीकृति की शुभकामनाओं सहित।

—डॉ. विवेक गौतम
सचिव-इंडियन सोसायटी
ऑफ ऑथर्स

न सही आसमान


न सही आसमान पूरा
बस
उसका छोटा सा
टुकड़ा ही होता
पर बिलकुल
मेरा ही होता।

झरती जिससे धूप
नर्म गरमाहट लिए
मिलता मुझे
जो हर पल
हर मौसम की सहलाहट लिए
बारिशों में कभी
हलकी फुहार बन
तो कभी
गुलाबी सरदी की थपकन
कभी वह टुकड़ा
बन जाता बादल मेरे लिए
कभी सूरज से चुराकर धूप
दिन का उजियारा ले आता
तो कभी रूठ जाने से दिन के
रात का अँधियारा
झोला में लाता

फिर कहीं से खींच लाता चाँद
और तान देता मुझ पर
चाँदनी की चादर
वह टुकड़ा होता
मेरी पूरी दुनिया
मेरे अहसासों की दुनिया
जो रँगता
कोरे भावों को
जोड़ा पहनाता
मन के हर कोने में जाकर
स्पन्द में निर्मलता लाता

उस टुकड़े में ही रहती
बाग़ों की सुरभि
वो टुकड़ा होता मेरा
सिर्फ़ मेरा
मेरे दैहिक जीवन का
आत्मा रूप

बस…
छोटा सा वह टुकड़ा होता
मेरा होता
बस…मेरा होता।

108 डिग्री का मोड़


क्या एक पल कहता है
बीते पल की कहानी
और
आगे की रवानी!
कभी हाँ
और कभी
नहीं।

यदि कहता है
कोई पल
अपनी ही कहानी
तो सच का
साकार साक्षी बनता है
और जब कहता नहीं
या
कह नहीं पाता

कोई पल
अपनी कहानी
तो न जाने
कितने जीवन
मंज़िल भटक जाते हैं
रास्ते भूल जाते हैं
और
जीवन का अर्थ भी
कभी-कभी
180 डिग्री का मोड़
ले लेता है

और फिर
जीवन और उसका लक्ष्य
विपरीत दिशा में
बढ़ते हैं
हर पल;
जीवन और लक्ष्य
अपने तय क़दमों से
दूर और दूर

प्रतिगामी होते जाते हैं
मैं भी दूर हो जाता हूँ
खुद से
उतना ही प्रतिगामी
उतना ही दूर
पर उतना ही जुड़ा
जितनी
180 डिग्री की
मेरी जीवन-यात्रा





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